इस अध्याय में हम पांडवों के हस्तिनापुर लौटने और उनके साथ होने वाले एक और अन्याय के बारे में पढ़ेंगे। पांडवों के साथ तो बहुत से अन्याय होते आ रहे थे जिसका कारण धृतराष्ट्र का अपने पुत्र के प्रति निहित प्रेम था ऐसा नहीं था की वह पांडवों से प्रेम नहीं करता था परन्तु वह हमेशा ही अपने पुत्र को उनसे ऊपर ही रखता था और यही कारण था की पांडवो के साथ हर समय अन्याय होता था।
हस्तिनापुर का विभाजन
पांडव अपने असली रूप में आ गए थे और अब पांचाल में ही रह रहे थे। पांडव गुस्से में तो बहुत थे परन्तु उनमे हस्तिनापुर के खिलाफ युद्ध करने की ताक़त नहीं थी। यहाँ ताकत से अभिप्राय उनकी मन की भावना का हैं पांडव अपने ही पिता के बड़े भाई को युद्ध के लिए आमंत्रित नहीं करना चाहते थे। श्री कृष्ण ने पांडवों को समझाया की युद्ध की पहल करके कोई फ़ायदा नहीं हैं इससे सब यही सोचेंगे की उन्होंने अपने बड़ों का मान नहीं रखा। युधिष्ठिर पहले से ही युद्ध के पक्ष में नहीं थे। वह युद्ध नहीं चाहते थे इसीलिए उन्होंने श्री कृष्ण की बात मान ली। दूसरी ओर दुर्योधन और शकुनि पांडवों के खिलाफ योजनाए बनने में जुटे थे। जब विदुर महल में पहुँचे तो श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को उनसे सभा में मिलने के लिए कहा जिसपर पांडवों ने उनकी बात मान ली। विदुर सभी के पास पहुँचे और वहाँ जाकर द्रौपदी के लिए हस्तिनापुर से आये उपहार द्रुपद को दिए और पांडवों संग द्रौपदी को वापस महल ले जाने की आज्ञा माँगी जिसपर द्रुपद ने उन्हें हामी भर दी। जब श्री कृष्ण ने भी उनके साथ हस्तिनापुर जाने की बात की तो द्रुपद ने उन्हें भी साथ जाने के लिए कहा। श्री कृष्ण, बलराम जी और पांडवों संग द्रौपदी को लेकर हस्तिनापुर की ओर निकल गए। महल में भीष्म, गांधारी और वह सभी लोग जो पांडवो के आने से खुश थे वह उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे जहाँ दूसरी ओर शकुनि और दुर्योधन कोई नई योजना बनने का मार्ग ढूंढ रहे थे। धृतराष्ट्र भी पांडवों के वापस आ जाने से कुछ ज्यादा प्रसन नहीं थे क्योकि वह भी अपने ही पुत्र को युवराज के रूप में देखना चाहते थे। भीष्म ने दुर्योधन के कक्ष में जाकर उसे समझने की कोशिश की वह अगर पांडवों के हस्तिनापुर लौटने के पश्चात् किसी प्रकार का कोई ऐसा कार्य न करे की हस्तिनापुर में उनको लज्जित होना पड़े। दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों ही इस समय युवराज के पद पर थे इसीलिए भीष्म बहुत विवश थे।
पांडव हस्तिनापुर पहुँचे उनका स्वागत बड़ी धूम धाम से किया गया। सभी ने अपने-अपने बड़ों से आशीर्वाद लिया और महल में प्रस्थान किया। महल में गांधारी और दुर्योधन की पत्नी भानुमति द्वारा उनका स्वागत किया गया वह सब धृतराष्ट्र से मिले। श्री कृष्ण और बलराम जी भी सबसे मिले। धृतराष्ट्र इसी असमंजस में था की वह हस्तिनापुर में किसी एक को युवराज बनने के लिए किसे चुने। सभी का मानना यही था की युधिष्ठिर को ही हस्तिनापुर युवराज पद पर बैठाया जाये और दुर्योधन को युवराज के पद से हटा दिया जाये। धृतराष्ट्र खुद तो इस फैसले को नहीं करना चाहता था इसीलिए उसने यह निर्णय पितामह भीष्म को सौप दिया जिससे वह पक्ष पात से बच सके। पितामह भीष्म ने सभी के उत्तर में हस्तिनापुर का विभाजन करने का निर्णय किया। जिसका कारण स्पष्ट था की वह भाईयों में युद्ध की स्थिति नहीं देखना चाहते थे। सभी भीष्म के इस निर्णय से बहुत ही अचंभित हो गए। पितामह भीष्म अपना यह फैसला सुनाकर वह से चले गए। अब यह जानना बाकि था की हस्तिनापुर के विभाजन के उपरांत किसे कोनसा हिस्सा मिले। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को अपने कक्ष में बुलाकर उसे अपनी बातों में उलझा लिया और उसे खांडवप्रस्थ लेने को कहा क्योकि वह दुर्योधन को हस्तिनापुर से दूर नहीं करना चाहता था। खांडवप्रस्थ पथरो से घिरा एक वन था जिसमे हस्तिनापुर आता था। युधिष्ठिर अपने जेष्ट पिता को मना नहीं कर सकते थे। इसीलिए उन्होंने खांडवप्रस्थ में जाकर रहने का फैसला कर लिया। पांडव युधिष्ठिर के इस फैसले से खुश नहीं थे क्योंकि वह चाहते थे की यदि विभाजन हो भी रहा हैं। तो खांडवप्रस्थ दुर्योधन को मिले क्योंकि वह युधिठिर से छोटा था। युधिष्ठिर ने अपने भाईयों को अच्छे से समझाया और पांडव युधिष्ठिर की बात न माने ऐसा तो हो ही नहीं सकता था। पांडवों ने युधिष्ठिर की बात मान ली और सभी ने हस्तिनापुर छोड़ खांडवप्रस्थ जाने का फैसला कर लिया। दुर्योधन को जब यह पता चला की पांडवों को खांडवप्रस्थ मिला हैं तब भी वह इस बात से खुश नहीं था क्योंकि वह इसने स्वार्थी हो गया था की उसे पांडवों को कुछ नहीं देना था।
निष्कर्ष: युधिष्ठिर के साफ़ मन और अच्छी निष्ठा से हमे यह सिख मिलती हैं की हमे हमेशा ही अपने बड़ो का आदर और उनका कहा मानना चाहिए।
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