महाभारत अध्याय - 18

 महाभारत अध्याय - 18 

इस अध्याय में हम द्रोणाचार्य द्वारा माँगी हुई गुरु दक्षिणा और युधिष्ठिर के हस्तिनापुर का युवराज बन जाने के बारे में पढ़ेंगे। जिससे महल में कई लोग बहुत खुश थे और कई बहुत दुखी जिसका कारण था की वह दुर्योधन को युवराज बनते देखना चाहते थे। दुर्योधन अपने अभिमानी व्यवहार के कारण हस्तिनापुर के वासियों को बिलकुल पसंद नहीं था जबकि दूसरी तरफ युधिष्ठिर साफ़ मन से सभी का दिल जीत लेता था और यही कारण था की उसे हस्तिनापुर के वासी बहुत पसंद करते थे परन्तु युवराज चुनना तो महाराज धृतराष्ट्र के हाथों में था। 

हस्तिनापुर का युवराज - युधिष्ठिर 

हस्तिनापुर का युवराज - युधिष्ठिर
हस्तिनापुर में पाँडवों और कौरवों की शिक्षा अब समाप्त हो गयी थी और अब समय आ गया था की वह द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा दे। द्रोणाचार्य ने पहले कौरवों से गुरु दक्षिणा में पांचाल नरेश द्रुपद को बंदी बनाने के लिए कहा जिसका कारण यह था की द्रोणाचार्य और द्रुपद बालपन से ही अच्छे मित्र थे परंतु जब द्रुपद पांचाल का राजा बन गया तो उसने द्रोणाचार्य द्वारा माँगी एक गाय पर ही उनका बहुत ज़्यादा अपमान कर दिया। जिसके बाद द्रोणाचार्य हस्तिनापुर आ गए और अब वह उनसे उस अपमान का बदला लेना चाहते थे इसीलिए उन्होंने गुरु दक्षिणा में द्रुपद को बंदी बनाने के लिए कहा। दुर्योधन ने युद्ध तो बहुत अच्छे ठंग से लड़ा परन्तु द्रुपद से हार गया और उसे बड़ी न बना सका। उसके लौटने पर द्रोणाचार्य ने उसे शाबाशी दी और पांडवों से यही गुरु दक्षिणा माँगी। पाँडवों ने द्रुपद को पराजित का दिया और उसे बंदी बनाकर द्रोणाचार्य के पास ले आये जिससे द्रोणाचार्य का बदला पूरा हो गया। महल में सभी इस बात से खुश थे की पाँडवों और कौरवों की शिक्षा की समाप्त हो गयी हैं। सभी के खुश होने का कारण  यह भी था की अब हस्तिनापुर को उनका युवराज मिलने वाला था। एक ऐसा युवराज जो राज्य को सुरक्षा और न्याय प्रदान करा सके । सभी चाहते थे की युधिष्ठिर जो पांडवों में सबसे बड़ा था वो युवराज बने परन्तु धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन को युवराज बनाना चाहते थे। धृतराष्ट्र के राजा होने की वजह से इस बात का फैसला उसी के पास था जिसमे भीष्म पितामह, कृपाचार्य, और द्रोणाचार्य कुछ नहीं कर सकते थे। धृतराष्ट्र अपने मन में ही अपने आप से लड़ रहा था क्योंकि वह यह भी नहीं चाहता था की हस्तिनापुर राज्य की डोर किसी गलत हाथ में पढ़ जाए। धृतराष्ट्र 
को अगले दिन महल में अपना फैसला सुनाना था। 

अगले दिन आ गया। राज्य के लोग बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें अपना युवराज मिलाने वाला था। धृतराष्ट्र के साथ सभी एक-एक कर सभा में पधारे। जैसे ही युवराज चुनने का समय आया तो धृतराष्ट्र बहुत ही असमंजस में पड़ गया की वह किसे चुने। तभी महल में चार अपराधियों को लाया गया जिनका अपराध यह था की उन्होंने किसी की मृत्यु की थी। जिनके न्याय फैसला दुर्योधन और युधिष्ठिर को करने के लिए कहा गया जब दुर्योधन से उसका निर्णय पूछा गया तो उसने उन्हें मृत्यु दंड देने के लिए कह दिया परन्तु जब युधिष्ठिर को न्याय करने के लिए कहा तो उसने  उनकी जाती पूछी जो न्याय के लिए आवश्यक था। सभी ने एक-एक कर अपनी जातियाँ बताई जिसमे एक शूद्रा, दूसरा वैश्या, तीसरा क्षत्रिय, और चौथा भ्रामण था। जब युधिष्ठिर को उनकी जातियों के बारे में पता चला तो उसने उनको उनकी जातियों के हिसाब से दंड देने का निर्णय किया। सभा में युधिष्ठिर के इस फैसले को सुन सभी बहुत प्रसन्न हो गए। जब महाराज से युवराज नियुक्त करने का फैसला पूछा गया तो उन्होंने युधिष्ठिर को युवराज बनाने का आदेश दे दिया। हस्तिनापुर में युधिष्ठिर को युवराज बनाने की तैयारी हो रही थी जिससे सभी बहुत खुश थे परन्तु शकुनि, दुर्योधन और स्वेमं महाराज धृतराष्ट्र इस बात से नाखुश थे क्योंकि यह सभी दुर्योधन को युवराज बनते देखना चाहते थे। युधिष्ठिर के युवराज बनते ही दुर्योधन पुरे हस्तिनापुर में सबकी मदद कर रहा था जिससे हस्तिनापुर उसे अच्छा समझने लगे। शकुनि भी अपने दिमाग में पाँडवों के खिलाफ योजना बना रहा था तथा धृतराष्ट्र और दुर्योधन को पाँडवों के खिलाफ कर रहा था।

निष्कर्ष: युधिष्ठिर के न्याय से हमे यह सिख मिलती हैं की हमे हमेशा सोच-समझकर ही निर्णय लेना चाहिए! 

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