महाभारत अध्याय -21
इस अध्याय में हम द्रौपदी और उसके भाई धृष्टद्युम्न के जन्म के बारे में जानेंगे जो भी द्रुपद की पुत्री तथा पांचाल की राजकुमारी थी। द्रौपदी को यज्ञसेनी द्रौपदी भी कहा जाता था जिसका कारण था की उसका जन्म यज्ञ से हुआ था। साथ ही हम अर्जुन संग द्रौपदी के विवाह के बारे में पढ़ेंगे। अर्जुन ने द्रौपदी को उसके स्वयंवर में जीता था जहाँ बड़े-बड़े धनुर्धर कुछ न कर सके थे।
द्रौपदी
पांडव अब वन में रह रहे थे। एक दिन उनकी कुटिया के पास से ऋषि गुजर रहे थे तब कुंती ने उन्हें देख लिया और भोजन ग्रहण करने की विनती की ऋषियों ने हामी भर दी। कुंती में ऋषियों को भोजन कराया तभी एक ऋषि ने कुंती से प्रशन किया की "क्या उसके पुत्र काम्पिल्य नहीं जा रहे ?" कुंती ने प्रशन किया की वहाँ ऐसा क्या हो रहा हैं जो सभी वहाँ जा रहे। ऋषियों ने काम्पिल्य देश की कन्या के स्वयंवर के बारे में बताया तथा उसी के साथ उनका परिचय भी दिया। काम्पिल्य देश की राजकुमारी के पिता और कोई नहीं द्रोणाचार्य के बालपन के मित्र द्रुपद ही थे। पांडवों ने जिन्हे बंदी बनाकर अपने गुरु को गुरुदक्षिणा के रूप में दिया था। बस यही कारण था की द्रुपद के ह्रदय में द्रोणाचार्य को लेकर आज भी वही क्रोध था। द्रुपद किसी न किसी तरह द्रोणाचार्य से प्रतिशोध लेना चाहते थे। वह भी अपने ही पुत्र के हाथों इसलिए वह उस पुत्र की प्राप्ति हेतु ऋषि याज की खोज में निकल गए। याज ऋषि ने उन्हें यज्ञ के लिए हामी भर दी। जब वह यज्ञ कर रहे थे तो मुहूर्त होने के पश्चात् जब महारानी को आने का आदेश दिया गया तो वह नहीं आ पाई क्योंकि वह स्नान कर रही थी। ऋषि ने क्रोध में आकर आहुति दे दी जिससे यज्ञ में से द्रुपद एक पुत्र और एक पुत्री की प्राप्ति हुई। ऐसे ही द्रौपदी और उसके भाई धृष्टद्युम्न का जन्म हुआ। काम्पिल्य देश द्रुपद की ही कन्या द्रौपदी के स्वयंवर का आयोजन कर रहा था। जिसमें दूर -दूर से बहुत से देशों के राजा शामिल थे। जो स्वयंवर में भाग लेने आये थे। ऋषियों ने कुंती को उसके पुत्रों को भी काम्पिल्य भेजने के लिए कहा जिससे वह वहाँ से मिले दान से अपना भोजन जुटा सके और उन्हें ज्यादा मेहनत न करनी पड़े। पांडवों को भी यह विचार सही लगा और वह भी वहाँ अन्य ऋषियों के साथ चले गए।
स्वयंवर की शरुवात हुई सभी राजा, महाराजा सभा में एकत्रित हुए। स्वेमं नारायण के अवतार श्री कृष्ण भी द्रौपदी का स्वयंवर देखने आए थे क्योंकि वह द्रौपदी को अपनी बहन की ही मानते थे। द्रौपदी स्वयंवर में आई। स्वयंवर की शुरुवात हुई तभी पांडव भी ऋषियों के भेष में सभा में पधारे। श्री कृष्ण उन्हें देख बहुत प्रसन्न हुए। स्वयंवर में एक प्रतियोगिता राखी गयी थी जिसमें छत पर एक मछली घूम रही थी और उसी के निचे पानी में उसकी परछाई दिख रही थी। उस परछाई को देखते हुए उस मछली की आंख बांधनी थी और जो यह करने में सफल होता द्रौपदी उसी के गले में माला डालती। सभी ने एक -एक कर वहाँ रखे धनुष को उठाने का प्रयास किया परन्तु वह तो धनुष को हिला भी न सके। बहुत से राजाओं की कोशिशों के पश्चात् कर्ण उठा और धनुष उठाया। वह बस मछली पर निशाना लगाने ही वाला था की द्रौपदी ने उसे रोक लिया। द्रौपदी ने उसका अपमान करते हुए कहा भी वह एक सूत पुत्र से विवाह नहीं करेंगी। कर्ण क्रोधित होकर अपने स्थान पर वापस बैंठ गया। धृष्टद्युम्न ने सभा में एकत्रित सभी राजाओं से यह प्रशन किया की क्या कोई ऐसा नहीं हैं जो इस प्रतियोगिता को जीत सके और मेरी बहन द्रौपदी से विवाह कर सके। तभी अर्जुन आगे आये और महाराज से आज्ञा ली। महाराज ने आज्ञा दे दी । अर्जुन ने आज्ञा लेकर धनुष को उठाया। अर्जुन के धनुष उठाते ही सभा में बैठे सारे लोग अचंभित हो गए। स्वेमं महाराज द्रुपद जिन्होंने यह प्रतियोगिता अर्जुन के लिए रखवाई थी और कोई इस प्रतियोगिताको अर्जुन, कर्ण, और श्री कृष्ण के अलावा जीत नहीं सकता था इसीलिए वह यह देख बहुत अचंभित हो गए। अर्जुन ने पानी में मछली की परछाई देख कर उसकी आँख बांध दी और विजय हासिल कर ली। सभा में सभी राजाओं ने एक भ्रामण के विजय हासिल करने के उपरांत सभा में हाहाकार मचा दी उनका मानना था की ऐसा कर द्रुपद ने उनका अपमान किया हैं। श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को वहाँ से जाने का इशारा किया। जिससे कोई उन्हें पहचान न सके। युधिष्ठिर भीम को अर्जुन के साथ छोड़ नकुल और सहदेव को लेकर वहाँ से चले गए। जो भी राजा अर्जुन के पास आया भीम ने उसे पीछे धकेल दिया। अर्जुन द्रौपदी के पास गए और वरमाला पहनाने को कहा। द्रौपदी ने खुश होकर उन्हें माला पहना दी। कर्ण ने जैसे ही धनुष चलने के लिए उठाया अर्जुन ने एक ही तीर से उसका धनुष तोड़ दिया। कर्ण अर्जुन के गुरु को प्रणाम कर वहाँ से चला गया। बलराम जी को भी यह पता चल गया की वह और कोई नहीं पांडव ही हैं।
निष्कर्ष: हमे कभी भी किसी को कम नहीं समझने की भूल नहीं करनी चाहिए इस दुनिया में हर एक व्यक्ति किसी न किसी कार्य में निपूर्ण अवश्य होता हैं!
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