महाभारत अध्याय - 8
इस अध्याय में हम धृतराष्ट्र और पाण्डु के विवाह के बारे में पढ़ेंगे। धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से हुआ था और पाण्डु का विवाह कुंतीभोज की राजकुमारी कुंती और मद्र देश की राजकुमारी माद्री के साथ हुआ था । आगे चल कर गांधारी और कुंती के पुत्रों में ही संपत्ति और धन के कारण युद्ध हुआ।
धृतराष्ट्र और पाण्डु का विवाह
पाण्डु को महाराज बने समय हो चूका था हस्तिनापुर के लोग अपने नए महाराज से बहुत खुश थे। सत्यवती को अब धृतराष्ट्र और पाण्डु के विवाह की चिंता होने लगी थी वह चाहती थी की उनका विवाह हो जाए और वह अब गृहस्त जीवन में भी सफल हो पाए। सत्यवती ने इस बारे में भीष्म से बात की भीष्म ने धृतराष्ट्र के बड़े होने की बात करते हुए कहा की पहले धृतराष्ट्र का ही विवाह होना चाहिए और सत्यवती को गांधार की राजकुमारी गांधारी के बारे में बताया। दोनों चाहते थे की धृतराष्ट्र का विवाह किसी ऐसी कन्या से हो जो उसकी आँखें बने और उसका जीवन भर साथ निभाए। वह गांधार नरेश से मिलने चले गए। गांधार पहुंचकर जब उन्होंने यह प्रस्ताव गांधार नरेश के सामने रखा तो गांधार नरेश के पुत्र शकुनि और स्वेमं गांधार नरेश ने भी धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने की वजह से अपनी पुत्री का विवाह धृतराष्ट्र से होने के लिए मना कर दिया। गांधारी यह सब सुन रही थी और वह जानती थी की किसी मनुष्य को उसकी किसी प्रकार की क्षमता या आक्षमता के कारण न चुनना गलत है इसीलिए वह कक्ष में आगयी और धृतराष्ट्र से ही विवाह करने के बारे में कहने लगी तथा गांधारी ने यह भी कहा की वह धृतराष्ट्र को अपने मन में पति मान चुकी हैं। गांधारी की ये बाते सुन गांधार नरेश कुछ न कह सके सब कहने के पश्चात् गांधारी ने एक कपड़े से अपनी आंखें बांध ली। भीष्म ने जब गांधारी के आँखों पर पट्टी बांधने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा की "मैंने आज से अपने जीवन को उसी अंधकार में दाल लिया हैं जिसमे महाराज धृतराष्ट्र हैं क्योंकि मैं यह चाहती हूँ की मैं भी उनके साथ रह कर उनके जैसा ही अनुभव कर सकूँ" गांधार नरेश ने अपनी पुत्री की बातें सुन उन्हें विवाह के लिए आशीर्वाद दिया। दोनों क विवाह हो गया।दूसरी तरफ पाण्डु कुंती भोज की राजकुमारी कुंती के स्वंवयर में पहुंचे। वहाँ कुंती द्वारा पाण्डु को वरमाला पहनाने के पश्चात् उनका विवाह हो गया और वह हस्तिनापुर की ओर निकल गए। कुंती के पाण्डु के साथ विवाह से पहले का भी एक सच हैं जो जानना बहुत आवशयक हैं कुंती ने मथुरा के वृष्णि वंश के राजा शूरसेन के महल में जन्म लिया था वह उनका नाम पृथा था परन्तु शूरसेन ने अपनी पुत्री कुंती को कुंती भोज भेज दिया क्योंकि कुंती भोज वंशहीन था। कुंती का पालन-पोषण कुंती भोज में ही हुआ और एक दिन जब महल में दुर्वासा ऋषि पहुंचे तो उनकी सेवा के पश्चात् कुंती को ऋषिमुनि द्वारा एक वरदान मिला जो इस प्रकार था की वह जब चाहे किसी भी देव को बुला सकती हैं और उनसे पुत्र की प्राप्ति कर सकती हैं। ऋषि तो वापस लौट गए परन्तु कुंती उनसे मिले हुए वरदान के बारे में ही सोचती रहती थी। एक दिन कुंती ने सूर्य देव को जल अर्पण किया ऋषि मुनि द्वारा दिया गया मंत्र पड़ा तभी सूर्य देव आ गए। सूर्य देव को देख कुंती को यह यकीन हो गया था की यह वरदान सच्चा हैं उन्होंने सूर्य देव से उनको ऐसे बुलाने पर शमा माँगी और उन्हें लौट जाने के लिए अनुरोध किया। परन्तु सूर्य देव ने उन्हें एक पुत्र सौप दिया और उसके बारे में बताया की उसका नाम कर्ण हैं और यह सोने के कवच और कुण्डल पहन कर जन्मा हैं और आगे चल कर इसको दान वीर के नाम से जाना जायेगा यह कह कर वह चले गए। कुंती बहुत परेशान हो गयी क्योंकि अभी उनका विवाह नहीं हुआ था इसीलिए वह इस पुत्र को अपने पास नहीं रख सकती थी। कुंती बहुत ही दुखी थी और इसी कारण उसने अपने दिल पर पत्थर रख अपने पुत्र को नदी किनारे में एक टोकरी में रखने का फैसला कर लिया। अब पाण्डु और कुंती महल पहुँच गए थे और महल में आते ही पाण्डु को एक यात्रा पर जाना पड़ा इसीलिए वह यात्रा के लिए निकल गए।
निष्कर्ष: अगर हमे जीवन में कोई वस्तु या वरदान प्राप्त हुआ हैं तो हमे उसे परखने या इस्तेमाल करने की भूल नहीं करनी चाहिए।
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