महाभारत अध्याय - 4

महाभारत अध्याय - 4 

जैसा की हमने अध्याय - 2 में यह जाना था की शांतनु का विवाह सत्यवती से भी हुआ था तो इसके बारे में हम इस अध्याय में पढ़ेंगे। सत्यवती दाशराज की पुत्री थी वह अपने पिता की सेवा करने के लिए नाव चला कर यात्रियों को यमुना पार कराती थी। सत्यवती का भी महाभारत में एक प्रमुख पात्र था। सत्यवती का जन्म मछली का पेट फाड़ कर उसमें से हुआ था तथा उनके शरीर में से मत्सय की गंध आती थी इसीलिए  सत्यवती का दूसरा नाम मत्स्यगंधा था। सत्यवती ने पराशर मुनि की बहुत सेवा की थी जब उन्हें सह्त्रजर्नो ने मृत समझ कर छोड़ दिया था तब महर्षि ने उन्हें प्रसन होकर उनका मत्स्यभाव नष्ट कर दिया तथा शरीर से उत्तम गंध निकलने का वरदान दिया। 

देवव्रत की भीषण प्रतिज्ञा 

सत्यवती

एक दिन जब महाराज शांतनु यात्रा कर रहे थे तो बीच में एक नदी किनारे उन्हें एक कन्या दिखी वह उसके पास गए तथा उससे प्रशन किया की वह कौन हैं तथा यहाँ किसकी प्रतीक्षा कर रही हैं ? कन्या ने उत्तर दिया "मैं सत्यवती हूँ  दाशराज की पुत्री, मैं यहाँ यात्रियों की प्रतीक्षा कर रही हूँ जिन्हें यमुना पार जाना हो।" महाराज ने सत्यवती से उन्हें यमुना पार कराने की इच्छा जताई तो सत्यवती ने उन्हें हामी भर नाव पर बैठा लिया। जब नदी के पार पहुंचे तो महाराज ने उन्हें वापस जाने के लिए कहा जब वह वापस आगए तो उन्होंने उन्हें वापस उस पार जाने के लिए कहा जिस पर सत्यवती नए प्रशन किया की आप जाना कहा चाहते हैं ? शांतनु ने उत्तर दिया "यह तो मुझे नहीं मालूम परन्तु मैं जो कहना चाहता हूँ  उससे कहने के लिए अभी थोड़ा और समय चाहता हूँ जिससे में उचित शब्दों को चुन सकूँ " सत्यवती ने नाव को दुबारा मोड़ लिया तथा दूसरे ओर ले गयी ऐसे ही दो से ज्यादा चक्कर मारने के बाद सत्यवती ने प्रश्न किया की क्या अब उचित शब्द प्राप्त हो गए महाराज तो शांतनु ने उत्तर दिया "तुम्हारे सौंदर्य और उसकी सुगंध ने मेरा मन मोह लिया हैं सत्यवती मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। " सत्यवती ने विवाह की बात उनके पिता से करने के लिए कहा जिसपर महाराज शांतनु ने उनके मन की बात पूछी तो सत्यवती ने हामी भर दी। महाराज शांतनु उसी दिन सत्यवती के घर उसके पिता से उसका हाथ माँगने गए। दाशराज ने विवाह के लिए हामी तो भर दी परन्तु विवाह के लिए एक शर्त रखी की महाराज दुविधा में पड़ गए। दाशराज की शर्त कुछ इस प्रकार थी के वह चाहते थे की यदि सत्यवती का विवाह महाराज शांतनु से हुआ तो सत्यवती का पुत्र ही युवराज बने जिसपर महाराज शांतनु का चिंतित होना अवश्य ही था क्यूँकि वह देवव्रत को युवराज घोषित कर चुके थे और ऐसा करना देवव्रत के साथ अन्याय था इसीलिए महाराज ने उनको बहुत सी और सुविधाएँ देने के लिए कहा जिसपर दाशराज ने उन्हें विवाह के लिए माना कर दिया। महाराज शांतनु क्रोधित होकर वापस लौट गए। 

समय बीतता चला गया महाराज बहुत ही निराश रहने लगे वह यमुना नदी के तट पर बार - बार जाते जहाँ वह सत्य- वती को पहेली बार मिले थे उनकी उदासी और निराशा देवव्रत से छुप नहीं पायी तथा एक दिन जब वह अपने कक्ष में थे तो देवव्रत वहाँ आये और उनसे उनकी निराशा और उदासी का कारण पूछा परन्तु महाराज ने उन्हें कुछ भी बताने से मना कर दिया। देवव्रत अपने पिता के इस व्यवहार से बहुत दुखी हो गए तथा वह जानना चाहते थे की ऐसी क्या बात हैं जो महाराज को परेशान कर रही हैं। महाराज को रोज़ कही जाते और देर से वापस लौटे देख देवव्रत ने उनके सारथी से प्रशन कर उनके आने-जाने का पता लगाया और सब जान कर वह दाशराज से अपने पिता की उदासी का कारण जानने के लिए सत्यवती के घर पहुँचे। देवव्रत के दाशराज के घर पहुँच कर जब उन्हें महाराज की चिंत्ता का कारण पता चला तो उन्होंने बिना कुछ सोचे समझे दाशराज को यह वचन दे दिया की महाराज शांतनु तथा सत्यवती के विवाह के पश्चात् सत्यवती का पुत्र ही राज गद्दी सँभालेगा तथा हस्तिनापुर का युवराज बनेगा। दाशराज ने देवव्रत की बात सुन कर विवाह के लिए हामी तो भर दी परन्तु ये कहा की यदि सत्यवती का पुत्र युवराज बन भी गया तो भी आगे चल कर तो जेष्ट पुत्र का पुत्र ही राज्य संभालता हैं जिसका अर्थ हुआ की सत्यवती के पुत्र के बाद,आपका पुत्र ही राज गद्दी संभालेगा। देवव्रत दाशराज की इन बातों से इतने प्रभावित हो गए की उन्होंने "आजीवन पुत्र हीन तथा विवाह न करने की प्रतिज्ञा ले ली" ऐसी भीषण प्रतिज्ञा लेने के बाद सत्यवती ने देवव्रत की इस बात पर यह कहा की "अब तुम्हारे जैसे पुत्र कभी पैदा नहीं होंगे।" 

देवव्रत सत्यवती को लेकर शांतनु के पास पहुँचे तथा उनको सब बता दिया जिसपर शांतनु ने कहा की "यह तो महाराज भरत की शासन निति के खिलाफ हैं उनकी शासन निति के अनुसार मनुष्य जीवन का अर्थ जन्म से नहीं  कर्म से हैं और वह मनुष्य युवराज कैसे बन सकता हैं जिसका अभी जन्म भी नहीं हुआ हैं।" महाराज की बात सुनकर देवव्रत ने उत्तर दिया ये तो मेरे वचन के विरुद्ध हो गया इसलिए मैं चाहता हूँ की युवराज माता सत्यवती का पुत्र ही बने तथा आगे चलकर उनका पुत्र। महाराज ने अपने पुत्र देवव्रत की ऐसी पिता के प्रति प्रेम की भावना को देख उनको "इच्छा मुर्त्यु का वरदान" दे दिया तथा इसी भीषण प्रतिज्ञा लेने के पश्चात् उनका नाम भीष्म पड़ गया।

निष्कर्ष : भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान तो मिल गया परन्तु उनको मिला यही वरदान आगे चल कर उनके जीवन का बहुत बड़ा श्राप बन गया।  

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