महाभारत अध्याय - 3
इस अध्याय में हम गँगा तथा शांतनु के पुत्र देवव्रत (भीष्म पितामह) के बारे में पढ़ेंगे। देवव्रत का महाभारत में भीष्म पितामह बन कर बहुत ही प्रमुख पात्र हैं इन्होंने अपने वंश की बहुत सी पीढ़ियों को देखा था ऐसा इसीलिए था क्योंकि उनको इच्छा मृत्यु का वरदान था। देवव्रत जो आगे चल कर भीष्म पितामह बन गए वह द्योेेै नमक वसु के अवतार थे जिनको माता गँगा ने अपनी कोख से जन्मा था। भीष्म पितमाह ने आगे आने वाली पीढ़ियों में से पाण्डु , धृतराष्ट उनके पुत्र तथा उनके आगे आने वाले पुत्रों को भी देखा था। भीष्म पितामह ने अपने पुरे जीवन काल में कभी भी विवाह नहीं किया इसीलिए इनकी कोई संतान नहीं थी। इन सभी कारणों को हम आगे पड़ेंगे।
देवव्रत की वापसी
बहुत वर्ष बीत गए थे शांतनु अपने महल की खिड़की से गँगा नदी को देख रहे थे तभी उन्होंने देखा की कोई बाणों के द्वारा गँगा माँ को बांध दिया हैं। शांतनु चिंतित हो गए। वह गँगा तट पर पहुँचे और अपने धनुष को उठाया तथा कमान खींचने वाले ही थे की गँगा माँ प्रकट हो गयी। उन्हें देख कर शांतनु बहुत प्रसन्न हो गए और उनको अपने साथ महल जाने के लिए कहने लगे। गँगा माँ ने उनको वापस जाने से मना कर दिया तथा बोली की वह सिर्फ अपने पुत्र को वचन के अनुसार शांतनु को सौँपने आई हैं। गँगा ने देवव्रत की ओर इशारा किया। देवव्रत को देखते ही शांतनु तो जैसे उसके तेज़ में ही खो गए श्वेत वस्त्र पहनें हुए हाथोँ में धनुष पकड़े खड़े हुए अपने पुत्र को देख वह बहुत प्रसन्न हुए। देवव्रत ने गँगा नदी से अपने तीरों को निकाला। देवव्रत अपनी माँ गँगा के पास आए और अपने कौशल के बारे में बताया तभी गँगा माँ ने उनको कहा "अपने पिता से मिलो,महाराज अपने पुत्र को आर्शीवाद दीजिये।" देवव्रत ने अपने पिता से आशीर्वाद लिया तथा शांतनु ने देवव्रत को गले लगाया तथा प्रशन किया की उनका नाम क्या हैं और उन्होंने धनुर्विद्या किससे सीखी हैं तभी देवव्रत ने उत्तर दिया " माँ ने मेरा नाम देवव्रत रखा हैं पिता जी तथा मैंने यह विद्या अपने गुरु ऋषि भार्गव से सीखी हैं। "माता गँगा ने अपने पुत्र पर गर्व जताते हुए कहा की "मुझे भरतवंशियों की इस परंपरा का ज्ञान हैं की वह जन्म में नहीं क्रम में विश्वास रखते हैं तथा वह जन्म भोगी नहीं क्रम भोगी हैं इसीलिए मैंने देवव्रत को ऋषि वशिष्ट से वेद- वेदान की शिक्षा प्रदान करवाई और गुरु बृहस्पति से राजनीति जो इसने किया और जब ऋषि भार्गव ने यह कहा की अब इसके बाणों की गति को कोई नहीं रोक सकता। तो तब मुझे समझ आ गया की अब हस्तिनापुर को उसका युवराज वापस लौटने का समय आ गया हैं और मैं इसे आपके पास ले आई।"गँगा की बातों को सुन शांतनु ने उत्तर दिया "मेरे और तुम्हारे पुत्र को इतना कौशल तो होना ही चाहिए था तथा हस्तिनापुर इसे पाकर धन्य हो गया हैं।" गँगा को शांतनु की बातों द्वारा एक अच्छे पिता होने का आभास हो गया था तथा वह अपने पुत्र को शांतनु को सौंप कर चली गयी। शांतनु अपने पुत्र देवव्रत को अपने साथ लेकर हस्तिनापुर लौटें। देवव्रत ने सभी से आशीर्वाद लिया तथा महल में गए। समय बीतता चला गया देवव्रत ने अपने कई कौशलों से हस्तिनापुर की रक्षा की तथा प्रजा द्वारा बहुत-सा प्रेम प्राप्त किया। शांतनु ने देवव्रत को युवराज घोषित कर दिया तथा उसे राज गद्दी सौंप दी। समय बीतता चला गया अब देवव्रत जवान हो गया था महाराज उसके विवाह की बारे में सोचने लगे थे।
निष्कर्ष: इस अध्याय द्वारा हमें यह पता चलता हैं की सबर रखने से जीवन में बहुत कुछ पाया जा सकता हैं।
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