महाभारत अध्याय - 1
महाभारत एक ऐसी कथा है जो द्वापरयुग में संपत्ति तथा धन की वजह से हुई। इसमें एक ओर धृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्र कौरव थे तथा दूसरी ओर पांडु, कुंती और माद्री के पुत्र पांडव। कौरवों ने अधर्म का पक्ष एवं पांडवों ने धर्म का पक्ष चुना। यदि धन तथा संपत्ति को छोड़ भी दे तो भी कौरवों ने हर तरह से पांडवों के साथ गलत ही किया हैं। पांडवों को एक बार नहीं कई बार मारने की योजना बनाई गई। उनको वनवास पर भी भेजा गया जो की 13 वर्ष का था तथा जिसमें 13वा वर्ष जो की अंतिम वर्ष था वह अज्ञातवास था। इन सभी योजनाओं के द्वारा कौरव पांडवों कि मृत्यु के पश्चात् हस्तिनापुर पर राज करना चाहते थे। ऐसे बहुत से और भी कारण थे जिसके बाद आरंभ हुई युद्ध की भूमिका और रचा गया इतिहास का सबसे बड़ा महायुद्ध - महाभारत।
महाभारत का उदय
यह कहानी शुरू होती हैं दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र चक्रवर्ती महाराज भरत के विजय यात्रा से हस्तिनापुर लौटने पर। महाराज भरत ने कई युद्ध जीतकर हस्तिनापुर की सीमाएं हिमालय से सागर तक पहुंचा दी थी।उनके द्वारा ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा। भरत द्वारा प्रजातंत्र का बीज बोया गया तथा भरत ने जन्म तथा कर्म के बीच अंतर बताते हुए ये कहा की जीवन का अर्थ जन्म नहीं कर्म हैं को क्योंकि कुरुक्षेत्र वास्तव में धर्मक्षेत्र हैं। भरत के लौटने पर जब उनसे यह प्रशन पूछा गया की वह युवराज के पद पर किसे नियुक्त करना चाहते हैं तो वह इस बारे में सोच कर चिंतित हो गए। भरत के चिंतित होने का कारण यह था की वह 9 पुत्रों के पिता थे और उन 9 पुत्रों में से किसी एक को चुनना उनके लिए कठिन था। भरत महर्षि कनवा के पास गए तथा उनको अपने मन की यही चिंता बताई जिसपर महर्षि ने उनको कहा की "पूरी पृथ्वी पर विजय पा लेने वाले भरत ने अभी तक स्वमं पर विजय नहीं पायी और जब तक तुम स्वमं पर विजय नहीं पाओगे तब तक तुम न्याय नहीं कर पाओगे " यह कहकर महर्षि ने भरत को आशीर्वाद दिया। भरत राज दरबार लौट गए।
अब वह समय आगया था जब उन्हें युवराज चुनकर नियुक्त करना था जब महामंत्री द्वारा सूचीपत्र पढ़ा गया तो उसे सुन सभा में सभी हैरान रह गए क्योंकि सूचीपत्र में महाराज भरत की इच्छा अनुसार यह लिखा था की "एक महाराज वह हैं जो अपनी जनता की रक्षा करे , उनको न्याय दे और किसी ऐसे युवराज को नियुक्त करे जो योग्य हैं इसिलिए मुझे खेद हैं की मैं अपने किसी भी पुत्र को इस योग्य नहीं समझता तथा मैं भारद्वाज पुत्र भुमन्यु को अपना पुत्र मान कर उसे युवराज नियुक्त करता हूँ।" माता शकुंतला के द्वारा जब यह प्रशन किया की उन्होंने अपने पुत्रों की जगह भारद्वाज के पुत्र को क्यों युवराज घोषित किया तो भरत का कहना था की "मैं केवल एक पिता ही नहीं बल्कि एक राजा भी हूँ मुझे सबके साथ न्याय करना अवशयक हैं और जिसे मैंने युवराज के लये नियुक्त किया हैं वह भी तो मेरा ही पुत्र हैं क्योंकि वह मेरी ही प्रजा में से एक हैं यदि में अपने किसी भी पुत्र को नियुक्त करता तो यह मेरे राज्य तथा प्रजा दोनों के साथ अनन्य होता।
भरत द्वारा यह जो शासन निति बनाई गयी थी वह कुछ समय बाद शांतनु के शासन काल में फीकी पड़ गयी "जब जन्म को कर्म से बड़ा माना गया और वर्तमान को आगे आने वाले समय के ऊपर छोड़ दिया गया। अतः उसी दिन से महाभारत के लिए कुरुक्षेत्र की भूमि का निर्माण होने लगा। "
निष्कर्ष: भूमि तो तैयार हो गई परन्तु उसके पात्रों का तैयार होना बाकि हैं ?
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