महाभारत अध्याय - 16

महाभारत अध्याय - 16  

इस अध्याय में हम द्रोणाचार्य के बारे में जानेंगे जो हस्तिनापुर में पांडवों और कौरवों को धनुर्विद्या सीखने आये हैं। कृपी जो कुलगुरु कृपाचार्य की बहन थी उनका विवाह द्रोणाचार्य से हुआ था। द्रोणाचार्य ऋषि भारद्वाज तथा घृतार्ची नामक अप्सरा के पुत्र थे। द्रोणाचार्य बहुत ही बड़े धनुर्धर थे उन्होंने अपनी धनुर्विद्या परशुराम जी से ली थी। 

द्रोणाचार्य 

द्रोणाचार्य
अभी तक कृपाचार्य पांडवों और कौरवों को  शिक्षा प्रदान कर रहे थे परन्तु वह अब कुलगुरु भी थे जिसके कारण वह उनकी शिक्षा पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे इसीलिए उन्होंने द्रोणाचार्य को हस्तिनापुर बुला लिया। द्रोणाचार्य ने हस्तिनापुर आकर पांडवों और कौरवों को शिक्षा प्रदान कराई। अर्जुन द्रोणाचार्य को बहुत प्रिय था क्योंकि वह बहुत ही अच्छा शिष्य था जिसने अपने परिश्रम और अभ्यास से द्रोणाचार्य का दिल जीत लिया था। अर्जुन सभी में एक ऐसा बालक था जिसे धनुर्विद्या सीखने में बहुत रूचि थी और इसीलिए द्रोणाचार्य ने अर्जुन को धनुर्विद्या का पूर्ण ज्ञान दिया था। सभी भाईयों पांडवों और कौरवो में अर्जुन के बाण्डों का कोई मुकाबला नहीं कर सकता था। वैसे ही भीम और दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से गदा चलना सीखा। पांडवों और कौरवों की शिक्षा के दौरान एक विद्यार्थी ऐसे भी था जिसकी द्रोणाचार्य ने बहुत ही कठिन परीक्षा ली थी। उस विद्यार्थी का नाम एकलव्य था जिसने द्रोणाचार्य से शिक्षा की माँग की थी परन्तु द्रोणाचार्य ने उन्हें सभी राजकुमारों के साथ शिक्षा प्रदान करने से मना कर दिया था। तब एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बना कर उससे शिक्षा प्राप्त की थी परन्तु द्रोणाचार्य का मानना था की शिक्षा बिना आज्ञा लिए नहीं ली जा सकती इसीलिए उन्होंने एकलव्य से शिक्षा प्राप्त करने पर गुरु दक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया था। जिससे वह आगे चलकर अपनी शिक्षा का इस्तेमाल ही न कर सके। एकलव्य से उसका अँगूठा माँग लेने का एक यह भी कारण था की वह उसकी शिक्षा को देख हैरान रह गए थे। एकलव्य एक ऐसा बालक था जिसने केवल एक मूर्ति से ही धनुर्विद्या का सारा ज्ञान ले लिया था परन्तु द्रोणाचार्य अर्जुन को सबसे बड़ा धनुर्धर बनाना चाहते थे जिस कारण उन्हें एकलव्य की इतनी कठोर परीक्षा ली थी। द्रोणाचार्य खुद को और अर्जुन को यह वचन दे चुके थे की वह उसे ही सबसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाएँगे परन्तु वह यह नहीं जानते थे की एक और ऐसा बालक भी था जिसे अर्जुन की तरह ही धनुर्विद्या में बहुत रूचि थी। अधिरथ पुत्र कर्ण जो अर्जुन का भाई और कुंती का सबसे बड़ा पुत्र था वह भी परशुराम जी जो की स्वेमं द्रोणाचार्य के गुरु थे। उनसे धनुर्विद्या सिख रहा था क्योंकि द्रोणाचार्य ने उसे भी शिक्षा देने से मना कर दिया था। भीष्म पितामह ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या सीखी थी। दूसरी ओर कृष्ण की शिक्षा भी अब समाप्त हो गई थी। अब समय आ गया था की वह भी अपने गुरु को उनकी गुरु दक्षिणा देकर मथुरा लौट जाए इसीलिए उन्होंने यह फैसला किया की वह अपने गुरु के पुत्र को ढूंढ कर लायेंगे जो बचपन में कही चला गया था और फिर लौटा ही नहीं और उन्होंने ऐसा ही किया। जब श्री कृष्ण अपने गुरु के पुत्र की खोज में थे तब उन्हें एक शंक मिला। वह शंक कोई साधारण शंक नहीं था वह पांचजन्य शंक था। जब वह अपने गुरु के पुत्र को उनसे मिलाने लाये तो  उन्होंने वह शंक भी लाकर अपने गुरु को दे दिया परन्तु उन्होंने वह शंक कृष्ण को ही सौंप दिया। श्री कृष्ण मथुरा लौट गए। 

हस्तिनापुर के सभी राजकुमार भी अब बड़े हो गए थे उनकी शिक्षा भी अब समाप्त हो गयी थी। महल में रणभूमि का निर्माण होने लगा जिससे हस्तिनापुर भी अपने राजकुमारों की कुशलता और विद्या को देख सके। कुछ ही दिनों में रणभूमि का निर्माण हो गया। सभी एक-एक रणभूमि में पधारे। धीरे-धीरे सभी राजकुमार रणभूमि में पधारे और अपनी कुशलता से सबका दिल जीत लिया। लगभग सभी अब अपने कौशल का परिचय दे चुके थे और अब समय आ गया था जब अर्जुन अपने बाणों से सबका परिचय करा रहा था सब अर्जुन की कुशलता को देख बहुत प्रसन्न थे जैसे ही द्रोणाचार्य ने रणभूमि में सभी के सामने यह घोषणा की कि अर्जुन के बाणों का सामना कोई नहीं कर सकता तभी रणभूमि में अधिरथ पुत्र कर्ण ( माता कुंती का पुत्र और पांडवो का सबसे बड़ा भाई ) ने प्रवेश किया। सभी उसे देख हैरान रह गए क्योंकि वह एक सबसे बड़े धनुर्धर को ललकार रहा था। जब कृपाचार्य ने कर्ण से उसका परिचय पूछा तो वह कुछ बोल न पाया तभी कुंती उसके तेज़ को देख कर समझ गयी की वह और कोई नहीं उसका वही पुत्र हैं जिसकी प्राप्ति उसे सूर्य देव से हुई थी। जैसे ही दुर्योधन ने देखा की कर्ण कुछ कह नहीं पा रहा क्योंकि शायद वह किसी साधारण परिवार से हैं तो उसने उसे उसी समय अंग देश का राजा घोषित कर दिया। जिससे वह अर्जुन को हरा कर सबको यह सिद्ध कर दे की वह भी अर्जुन जितना ही बलशाली और कुशल हैं। तभी कर्ण ने दुर्योधन को यह वचन दे दिया की चाहे अब कुछ भी हो वह हमेशा उसका साथ देगा और एक बहुत अच्छा  मित्र बनकर दिखाएगा। जब अधिरथ ने रणभूमि में प्रवेश किया तो सभी कर्ण को सूत पुत्र कहने लगे परन्तु इस बिच भी अर्जुन और कर्ण दोनों ही अपने कौशल को दिखने के लिए उत्सुक थे। इन सभी बातों के बिच सूर्य अस्त हो गया और नियम के अनुसार अब किसी भी प्रकार का युद्ध या रण होना नामुनकिन था इसीलिए सभी महल वापस लौट गए। 

निष्कर्ष: आज तो कर्ण का अर्जुन को रण में पराजित करने का स्वप्न अधूरा रह गया परन्तु आगे चलकर क्या यह पूरा होने वाला हैं ?

अगर आपको यह आर्टिकल पसंद आया हैं तो अपने विचारों को कमैंट्स द्वारा बताए तथा औरो को भी ये आर्टिकल शेयर करे। धन्यवाद। 

Post a Comment

0Comments
Post a Comment (0)